Thursday, January 31, 2019

रेप के जिम्मेदार हम और हमारा समाज

माँ किसी रेपिस्ट को जन्म नहीं देती, माँ के लिए उसकी संतान उसका बच्चा होता है और वो हर तरीके से उसे अच्छा बनाना चाहती है।
यदि कोई व्यक्ति बलात्कारी, दरिंदा और पापी बनता है तो उसके जिम्मेदार हैं हम, हमारे द्वारा दी गयी लिबर्टी उसका मनोबल बढ़ाती है। हमारे यहां एक परंपरा है कि हम किसी मामले में तभी पड़ते हैं जब वो हमसे जुड़ा हो, महिलाओं के साथ छेड़छाड़ करने वालों की पिटाई की जाती है और उन्हें सबक सिखाया जाता है बशर्ते महिला हमारी बहन,बेटी, दोस्त, पत्नी या माँ हो। हम इग्नोर कर देते हैं सामने हो रही छेड़छाड़ और गलत चीजों को अगर वो हमसे रिलेटेड ना हो क्योंकि यही संस्कार मिलते हैं हमारे यहाँ बेटों को।
सिर्फ बेटों को ही नहीं बल्कि बेटियों को भी हमारे यहाँ यही सिखाया समझाया जाता है कि राह चलते कोई कमेंट पास करे, सीटी मारे, देखकर अश्लील गाने ऊंची आवाज में प्ले करे तो   "" जस्ट इग्नोर""   कोशिश करो कि कहीं अकेले मत जाओ, सहेलियों के साथ ही घर आओ लेकिन फिर भी अगर ऐसी सिचुएशन कभी आ गयी कि कोई तुमसे छेड़छाड़ करे तो तुरंत घर आ कर बड़े भइया से बताना ताकि वो उसको सबक सिखाने के लिए जाएं!  हमें विरोध करने की शिक्षा नहीं दी जाती।
यही बेटियाँ शादी के बाद ससुराल में भी सहती हैं क्योंकि उनमें नहीं क्षमता होती है आवाज उठाने और विरोध करने की, उनके पास केवल एक ही चारा होता है कि मायके में अपना दुख दर्द कहकर रो लें और फिर से वही सहने के लिए तैयार हो जाएं।
कितना अच्छा होता अगर कमेंट्स पास करने पर ही उसे तुरंत पलटकर जवाब दे देती लड़की, टेम्पो में कोहनी मार रहे बगल वाले अंकल को भी झटके से कोहनी लगाती लड़की, सामने के आइने से देख रहे कैब ड्राइवर को घूरकर नजरें झुकाने को मजबूर करती लड़की, रास्ता चलते हुए छेड़छाड़ करने और हांथ पकड़ने वाले को ऐसा घूंसा चेहरे पर मारती लड़की कि नाक और मुंह से खून आने लग जाये।
काश!!
काश ऐसा होता तो आज देश में किसी का भी रेप कर देना उनके लिए कोई बच्चों का खेल नहीं होता। जुर्म सहना, जुर्म करने से बड़ा पाप है और कहीं न कहीं हम सब इस पाप के भागी हैं। अगर किसी लड़की का रेप होता है तो उसका दोषी सिर्फ वो रेपिस्ट ही नहीं बल्कि हम सब और हमारा पूरा समाज है। हमारी चुप्पी हमारी गलती है जो उसका मनोबल बढ़ाती है और उस गलती की सजा भुगतनी पड़ती है समाज की अन्य बेटियों को।
कोई अचानक से अन्यायी और दुष्ट नहीं बन जाता, हम उसे ऐसा करने की छूट देते हैं। 

Saturday, January 5, 2019

जनरल बोगी का सफर..


अरे नहीं! सोचना भी मत, अगर टिकट न हो पाये तो तत्काल कर लेना, वो भी न हो तो प्रीमियम में ले लेना लेकिन जनरल में मत आना बेटा...
ऐसा कहना होता है मेरे पिता का 
"लेकिन क्यूँ? ऐसा क्या होता है जनरल बोगी में?" का जवाब सिर्फ "उसमें दिक्कत होती है" कहकर दे दिया जाता था। 
और भी लोगों से बात करते हुए मैंने जाना कि लोगों के बीच यह धारणा बन चुकी है कि जनरल बोगी का सफर आरामदायक व सुरक्षित नहीं होता और महिलाओं के लिए तो बिल्कुल भी नहीं। महिलाओं के साथ बत्तमीजी करना, उन्हें धक्के देना, बैड टच करना जनरल के यात्रियों के लिए आम बात होती है। लेकिन ऐसा क्यों होता है उसमें? क्या जनरल बोगी में यात्री दूसरे ग्रह से आते हैं? उसमें भी तो यही लोग होते हैं जो अक्सर हमारे बीच स्लीपर और एसी में यात्रा कर रहे होते हैं। इसपर लोगों का कहना था कि उसमें भीड़ होती है इसलिए ऐसा होता है। लेकिन भीड़ तो बस में भी क्या कम होती है? लेकिन फिर भी जनरल ट्रेन और बस के सफर में प्राथमिकता बस को ही मिलती है। महिलाओं के साथ धक्का मुक्की, जानबूझकर उपर गिरना, मौका पाते ही बैड टच और कमेंट पास होना.. बसों में भी खूब होता है लेकिन फिर भी महिलाएं बस यात्रा को इतना बुरा नहीं समझतीं जितना की ट्रेन की जनरल बोगी। फिर वो क्या चीज होती है जो जनरल बोगी को बाकी बोगियों और बस यात्रा की तुलना में खराब और घटिया साबित करती है! 
सुनी सुनायी बातों में क्या सही और क्या गलत? इसकी कोई गारंटी नहीं होती, मुझे तो तभी विश्वास होता जब खुद महसूस करती और अपनी आंखों से देख लेती सब कुछ।। 
और निकली मैं पहली बार ट्रेन की जनरल बोगी के सफर पर। ट्रेन ऐसी पकड़नी थी जो लम्बी दूरी का सफर तय करती हो इसलिए मैंने चुना "कोटा पटना एक्सप्रेस"। पहले से ही आठ घंटे लेट हो चुकी यह ट्रेन जब प्लेटफार्म पर आयी तो मैं भी सीट पाने के चक्कर में जल्दी से चढ़ गयी लेकिन नाकामयाब रही। अच्छी खासी भीड़ थी लेकिन फिर भी एक सीट पर मेरी हथेली के बराबर स्थान मिल ही गया। हालांकि आमतौर पर मैं किसी की दया का पात्र नहीं बनना चाहती किन्तु खड़े होने के लिए भी न के बराबर स्थान मिलना मेरे मन में घबराहट को जन्म दे रहा था इसलिए एक सज्जन की कृपा पाकर मैं बैठ सकी। पूरी बोगी में एक महिला थीं वो भी अपने पति के साथ, जो एक घंटे की यात्रा के बाद अपने मंजिल पर उतर गयीं। 
अनजान व्यक्तियों से भी सरलता से बात कर लेने की आदत अकेले होते हुए भी मुझे कभी बोर नहीं होने देती।खैर रात होने केे साथ ही सभी लोग अपने बैठने की व्यवस्था बनाने लगे, कुछ लोग नीचे ही चादर बिछाकर बैठ गये और कुछ एक दूसरे के ऊपर सिर टिकाकर सो रहे थे, वहीं कुछ लोग ऐसे भी थे जो ऊपर की दो सीटों के बीच चादर बांधकर झूलेनुमा बना रखे थे और उसी में बैठे हुए थे। वाकई ये दृश्य मेरे लिए पहली बार था। 
अगर बात करें उन चीजों की जो जनरल बोगी को बाकी से अलग करतीं हैं तो सारे चार्जिंग प्वाइंट्स टूटे हुए या खराब थे, पानी का तो कहीं नामोनिशान न था, टॉयलेट्स की गन्दगी को बयां नहीं कर सकती, हर किसी की एक्टिविटी दूसरे लोगों को डिस्टर्ब कर रही थी जैसे किसी को वॉशरुम जाना हो तो नीचे बैठे हुए लोगों से रिक्वेस्ट करना और उनकी दो बातें सुनना पड़ता था। मुझे हुई दिक्कतों में मुख्य रूप से यह था कि किसी के सिगरेट पीने या तम्बाकू ठोंकने को मुश्किल से सहन कर पा रही थी। राहत ये थी कि अपने आसपास बैठे लोगों में से किसी ने शराब नहीं पी रखी थी। 
खैर लोगों से ऐसे ही बातचीत करते हुए और बहुत सी समस्याओं को देखते झेलते हुए मेरा छह घंटे का सफर ग्यारह घंटे में आखिरकार पूरा हो ही गया और अपने गंतव्य को पहुंच कर थोड़ी राहत मिली। 





आत्मनिर्भर भारत

जब से मोदी जी ने आत्मनिर्भर भारत की बात कही है, मैं बहुत खुश हूं और लगता है कि जीवन में अब कोई समस्या ही नहीं रही। लेकिन एक दिन में मिली एक ...