Friday, August 24, 2018

एक संशय भरी यात्रा

13 जुलाई 2018, हावड़ा लालकुआं सुपर फास्ट एक्सप्रेस (12353) ।
शाम 7:30 पर मुझे BSB से ट्रेन पकड़नी थी, इधर उधर घूमते हुए और बार बार टाइम देखते हुए ट्रेन का इंतजार कर रही थी मैं। ट्रेन लगभग आधे घंटे लेट  वाराणसी जंक्शन पर आयी, मैंने तुरंत अंदर जाकर अपनी सीट ढूँढ ली, ट्रेन लगभग लगभग खाली ही थी। स्लीपर कोच में अपर सीट थी मेरी, मैने अपनी सीट पर बैग रख दिया और लोवर सीट पर ही बैठकर मोबाइल पर उंगलियाँ दौड़ाने लगी। उस सीट पर एक महिला बुर्के में बैठी थी और उसके सामने वाली सीट पर एक लगभग पैंतालीस - पचास वर्ष का व्यक्ति था। मैंने महिला का चेहरा नहीं देखा लेकिन ये मन में अन्दाजा लगा ली कि ये दोनों बीवी शौहर हैं। थोड़ी देर बाद व्यक्ति ने मुझसे पूछा कि "ये S6 है?", मैने जवाब दिया "अरे नहीं सर ये तो S4 है, आपकी सीट कौन सी है?"
उनका जवाब - "नहीं नहीं हमारे पास टिकट नहीं है, बस बैठ गये हैं ऐसे ही"। मैने हैरानी से पूछा  "बिना टिकट क्यूँ हैं आप?", उन्होनें बिल्कुल हल्के में बोला "अरे क्या टिकट लेना, मैं खुद रेलवे में हूँ, टीटी आयेगा तो करा लेंगे रिजर्वेशन "।फिर बातचीत होने लगी और उन्होंने मेरे बारे में पूछा और मेरे शहर से जाने वाली कई ट्रेनों के नाम और टाइमिंग भी बतायी, मुझे विश्वास हो गया था कि ये रेलवे में हैं लेकिन मन में ये भी सोच रही थी कि क्या रेलवे कर्मचारियों को बिना टिकट यात्रा की अनुमति है?
‌खैर इन सब बातचीत के दौरान उनके साथ की महिला इन सब बातचीत में कोई रुचि न लेते हुए खिड़की से सिर टिकाकर बाहर की तरफ एकटक देखे जा रही थी, बिल्कुल अनजान के जैसी। बातों बातों में उन्होंने बताया कि उन्हें भी लखनऊ तक ही जाना था और उनकी पोस्टिंग बनारस में है।
‌लगभग नौ से ज्यादा समय हो चुका था इसलिए मैं अपनी सीट यानी उपर वाली सीट पर जाने के लिए खड़ी हुई, थोड़ा बाहर गेट की तरफ घूमकर फिर आयी तो देखा वह व्यक्ति अपने साथ की महिला से बोल रहा था "तुम कुछ खा लो, पता नहीं कब का खायी होगी, प्लीज खा लो, खा लो ना...", महिला बिल्कुल चुप थी और अभी भी वो खिड़की से बाहर ही देख रही थी ठुड्डी को हथेली पर टिकाये हुए। फिर थोड़ी देर बाद उसने बैग से कुरकुरे का एक पैकेट निकाला तब तक आदमी ने कहा कि हां केक खा लो, केक सही है. इतना सुनकर महिला ने कुरकुरे का पैकेट भी झटके से बैग में फेंक दिया। इसी बीच मेरी नजर उसके बैग पर पड़ी, स्कूल बैग लिया था उसने और उसमें कुछ एक किताबें भी थीं ..। एक महिला होने के नाते मुझे शादीशुदा महिला का स्कूल बैग लेकर चलना थोड़ा शक पैदा कर रहा था क्योंकि उनके साथ कोई बच्चा नहीं था। 
मेरे अंदर का पत्रकार वाला कीड़ा कुलबुलाया और दिमाग में कई तरह की संभावनाएं चलने लगीं। खैर अब मैं अपनी सीट पर थी लेकिन मेरे कान और मेरा दिमाग नीचे ही लगा था और मैं लगातार उनकी बातें सुनने की कोशिश कर रही थी। थोड़ी देर बाद मैंने देखा कि वह महिला रो रही थी सुबक सुबक कर... और सामने बैठे व्यक्ति की बातों में कोई रुचि न लेते हुए अभी भी बाहर की तरफ ही देख रही थी खिड़की से सिर टिकाए हुए। फिर अचानक से सीधे मुड़ते हुए उसने बुर्के में ढका अपना चेहरा खोला और आंसू पोंछती हुई बोली "मुझे नहीं पहनना ये सब, नहीं रह सकती मैं इतना कैद में" और फिर से रोने लगी..  मैं तो तब चौंक गयी जब उसका चेहरा देखा, अरे ये तो बच्ची थी लगभग बीस वर्ष से अधिक की नहीं हो सकती, बिल्कुल मासूम सा खूबसूरत चेहरा। व्यक्ति बोला- "देखो तुम रो मत, मुझे अच्छा नहीं लग रहा है। मैं तुमको अपने परिवार के सदस्यों जैसा सम्मान दिलाउंगा क्यों परेशान होती हो"। 
बातचीत करने के तरीके से तो भला आदमी लग रहा था, फिर लड़की दुखी क्यों है? मैं अभी भी नहीं समझ पा रही थी।
फिर सिसकते हुए बोली-"मुझे पढ़ना था, पापा ने मुझे पढ़ने के लिए भेजा था और मैं... मैं... "।व्यक्ति ने कहा - "मैं बात करुंगा न तुम्हारे अब्बू से, वो मान जाएंगे और अब तो मेरी कोई बीवी भी नहीं, जो भी हो बस तुम हो"। लड़की चौंक कर थोड़ी कड़क आवाज में बोली- "सच सच बताइए कितनी शादियां हुई हैं आपकी "। वह बोला -" नहीं मैं तुमको कभी अंधेरे में नहीं रखूंगा, अब तुम मेरी हो तो तुमसे क्या छिपाना। देखो मेरे दो निकाह हुए थे जो कि दोनों से तलाक हो चुका है, पहली का बेटा है बीस वर्ष का उसके साथ रहती है जबकि दूसरी के साथ रिश्ता बहुत ही थोड़े दिन का था और अब उसने भी किसी और के साथ निकाह कर लिया है.... बस"
अब तक ट्रेन अमेठी आ चुकी थी तो और भी बहुत से लोग आ कर बोगी में अपनी सीटों पर बैठ गये इसलिए इनकी बोलने की आवाज अब काफी धीमी हो गई थी जो कि मैं नहीं सुन सकती थी। खैर अब मुझे काफी कुछ समझ में आ गया था लेकिन अब मन बहोत परेशान था कि क्या करुँ, कैसे बचाऊं इस बच्ची को, किससे हेल्प लूं? फिर मैंने रेलवे हेल्पलाइन के कई नंबरों पर कॉल की, कहीं पर उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर बताते तो कहीं फोन ही नहीं रिसीव होता...। मैनें कुछ परिचितों को भी फोन किया लेकिन कहीं से कोई सहायता न मिल सकी। अब मेर मेरे पास कुछ भी नहीं था जिससे कि उसे बचा सकूं, मन बहुत दुखी था और बहुत सी बातें घूम रहीं थीं। यही सब सोचते सोचते कब नींद आ गयी पता ही नहीं चला। जब नींद खुली तो ट्रेन रायबरेली जंक्शन पर रुकी थी, नीचे देखा तो वो दोनों ही नहीं थे वहाँ। लेकिन उन्हें तो लखनऊ तक जाना था, कहां चले गये, शायद रिजर्वेशन न होने की वजह से भटक रहे होंगे, कहीं लड़की के साथ कुछ.... उफ्फ!!
मैं कुछ नहीं कर पायी। क्या जो मैं सोच रही थी वही बात थी यहाँ? या फिर कुछ और? मैं गलत भी हो सकती थी लेकिन कुछ तो था, वो क्या था? लड़की परेशान क्यों थी? कुछ भी क्लीयर नहीं हुआ। यह यात्रा एक संशय बनकर ही रह गयी।

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