Thursday, September 6, 2018

कौन जिम्मेदार

जिस तरह से देश में महिलाओं पर अत्याचार की घटनाओं में तेजी से इजाफा हो रहा है वह अत्यन्त सोचनीय है। हमारी सरकारें इन घटनाओं को रोकने मे नकामयाब साबित हुयी हैं। प्रत्येक चुनाव चाहे पंचायत स्तर के हों, राज्य स्तर के हों या फिर केन्द्र, महिला सुरक्षा को एक प्रमुख मुद्दा बनाया जाता है। इस पर तीखी बहस होती है, सबमें अपने आप को योग्य प्रदर्शित करने की हो़ड़ सी लगी रहती है। दरअसल ये स्वार्थपूर्ण मानसिकता वाले राजनेता चाहते ही यही हैं की ऐसी घटनाएं होती रहें ताकि उनकी राजनीति की रोटियाँ सिंकती रहें। बातें तो यूँ बड़ी-बड़ी करते हैं मानों महिला समाज का उत्थान इन्हीं के हाँथों में है। फिलहाल इन राजनेताओं की तुच्छ मानसिकता तो एक लाइलाज बिमारी है। हमें अपना ध्यान इसपर केन्द्रित करना है कि आखिर क्यूँ हमारे देश का कानून इन घटनाओं को रोकने में अक्षम साबित हो रहा है? क्या ऐसा प्रतीत नहीं होता कि हमारे कानून में सुधार की जरुरत है? सबसे बङा प्रश्न तो यह है कि इस तरह की घटनाओं के लिए जिम्मेदार है कौन? क्या लड़कियाँ खुद? जी नहीं, बिल्कुल भी नहीं। यदि ऐसा होता तो मासूम बच्चियों और वृद्ध महिलाओँ के साथ ऐसा क्यों होता ? कुछ कथित महान आत्माओं का मानना है कि लड़कियाँ अपने पहनावे की वजह से ऐसी घटनाओं का शिकार होती हैं, तो मैं उनसे पूछती हूँ कि जब घर की बेटियाँ उसी पहनावे में होती हैं तो उन्हें देखने का नजरिया क्यों बदल जाता है ? दरअसल पहनावा अश्लील नहीं, अश्लील तो आपकी मानसिकता है। खुद को बदल के देखो, सारी दुनिया बदली – बदली सी नजर आयेगी।
देश मे यह समस्या इतना विकराल रुप धारण करती जा रही है कि कभी – कभी इसे जङ से खत्म करना असंभव सा प्रतीत होने लगता है। परन्तु यही सोचकर अपनी आँखों के सामने मासूम व निर्दोष जिन्दगियाँ तबाह होते हुए भी तो नही देख सकते न। यह समस्या केवल महिला जाति की समस्या नहीं है बल्कि यह पूरे समाज की समस्या है, तो क्यों न हम सभी मिलकर इसे खत्म करने के लिए कदम उठाएं? आइए शुरुआत अपने ही घर से करते हैं। क्या आपको नहीं लगता कि इन घटनाओं को अंजाम देने वाले हमारे घर में ही पलते – बढते हैं? हम अपने बेटों को ये बताते हैं कि ‘लड़कियों कि तरह रोते नहीं’ हम उन्हें ये क्यों नहीं बताते  कि ‘लड़कियों को रुलाते नहीं’। ऐसे ही ढेर सारे उदाहरण देकर हम बेटों को आगे बढने के लिए प्रेरित करते हैं। आखिर क्यों हम उन्हें लड़कियों का ही उदाहरण देते हैं ? ऐसा करने पर हम जाने – अनजाने उनके मन में बेटा होने का गर्व पैदा करते हैं और लड़कियों को खुद से कमतर समझना सिखाते हैं। जब हम अपनी बेटियों को यह एहसास कराते हैं कि वह बेटे से कम नहीं है, उसके पहले ही हमें बेटों को यह एहसास कराना चाहिए कि बेटी उससे कम नहीं है। क्योंकी नब्बे फीसदी पुरुष वर्ग आज भी उसी सदी में जी रहा है कि महिलाओं को उनके अनुसार चलना चाहिए। यह अफसोस की बात है कि इतनी पढ़ाई, बराबरी के हकों की बरसात  और मजबूत होते समाज के कायदेकानूनों के बावजूद लोग महिलाओं को अय्यासी का खिलौना ही मानते आ रहे हैं। क्या आपको नहीं लगता कि इसमें हमारे टी.वी सिरियल व अन्य साधन महत्वपू्र्ण भूमिका निभाते हैं?
फिल्मों में महिलाओं को एक मनोरंजन के साधन के तौर पर पेश किया जाता है, जो कि बिल्कुल गलत है। ऐसी कहानियाँ आग में घी डालने का कार्य करती हैं इसके स्थान पर फिल्मों में महिलाओं को एक शक्तिशाली पात्र के रुप में दर्शाना चाहिए। इससे महिलाओं का तो मनोबल बढ़ेगा ही साथ ही साथ गन्दी सोच वाले लोगों के मन में कुछ भय जरुर पैदा होगा। सबसे अधिक चिन्ता की बात यह है कि आजादी के सात दशक बीतने को हैं मगर भारत में महिलाओं के अपने इच्छानुसार कार्य करने की आजादी नहीं मिल पायी है। वे हर चीज के लिए पुरुषों पर आश्रित हैं। हालांकि बीते कुछ वर्षों में महिलाओं की पुरुषों पर निर्भरता कम हुई है मगर यह अनुपात बहुत ही कम है। क्या हमारे देश में कभी ऐसा समय आ सकता है जब महिलाएँ निडरता पूर्वक स्वतंत्र जीवन जी सकें? क्या ऐसा नहीं हो सकता कि महिलाएं भी बिना किसी डर के रात में ड्यूटी कर सकें या किसी अन्य काम से बाहर जा सकें ? लेकिन महिलाएं इन सब चीजों से कतराती हैं और रात को अपने घर में ही रहना पसन्द करती हैं। इससे तो साफ जाहिर होता है कि वे इस समाज में खुद को सुरक्षित नहीं महसूस करती हैं। यहाँ तक की अकेले लम्बी दूरी की यात्रा करने वाली महिलाओं का प्रतिशत भी काफी कम है। नारी हमारे समाज का एक अभिन्न अंग है फिर भी उसके साथ इतना भेदभाव क्यों ? उसकी इतनी उपेक्षा क्यों ? जब तक हमारा समाज संतुलित नहीं होगा होगा तब तक देश के विकास की अपेक्षा करना व्यर्थ है। और समाज संतुलित तभी होगा जब पुरुषों और स्त्रियों को समान अधिकार प्राप्त हों।

पुरुष और स्त्री को समान अधिकार दिलाने के लिए केवल नियम कानून ही काफी नहीं बल्कि प्रत्येक व्यक्ति को इसके लिए संकल्प लेना होगा और पिछड़े व शोषित स्त्री वर्ग को बराबरी का अधिकार दिलाने की कोशिश करनी चाहिए। उनकी सहायता करनी चाहिए न कि मौके का गलत फायदा उठाना चाहिए।

1 comment:

  1. इस प्रकार के विचारधारा घरो के माहौल से ही मिलता है यदि मै गलत नहीं हू तो उदाहरण के तौर पर "जब घर का कोई भी सदस्य किसी भी प्रकार का ध्रुमपान नही करता हो तो शायद ही उस घर के कोई सदस्य ध्रुमपान करे और ऐसा करने से वह सौ बार सोचेगा"!ठिक यही सिद्धांत घर के संस्कारों पर भी निर्भर करता है कि किस घर मे औरतो कि इज्जत और उनकी समानता मिल रहा है मै पूरा का पूरा समाजिक वातावरण से ज्यादा तो घर मे मिल रहे माहौल को ही जिम्मेवार मानता हूँ ,ऐसे केसेज मे चाहे वो लडका हो या लडकी!

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